शनिवार, 26 मार्च 2011

कोई किसी से कम नहीं! इस हम्माम में सब...................
कभी वोट के बदले नोट तो कभी भाजपा का हिन्दुतावादी अवसरवाद
कलतक जो भाजपा विकीलीक्स को अंतिम सत्य मान रही थी, आज गोलमाल कर रही है
अरुण जेटली अपने बयानों से मुकर रहे हैं
या तो विकीलीक्स बिलकुल सच ये या बिलकुल झूठ
ऐसा नहीं हो सकता कि विकीलीक्स की कांग्रेस के लिए कही गयी बातें तो १००% सच है
और भाजपा के लिए कही गयी बातें झूठ
कुछ तो शर्म करो सत्ता-लोलुपों!

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

"भारत की धार्मिक जनता की अंध श्रद्धा को भड़काना सब से आसान है ।" संघ परिवार अबतक इसका राजनीतिक इस्तेमाल करता रहा है और अब मीडिया को इस खेल में महारत हासिल हो चुकी है। जनता को गुमराह करके सनसनी फैलाना और टी आर पी ऊंची करने में वह माहिर हो चला है। मर्मान्तक पीड़ा देने वाली ख़बरें भी उनके द्वारा उत्सव की मुद्रा में परोसी जाती है। "आजकल" चैनलों का यही हाल है।

अभी कुछ ही दिनों पहले एक लड़की के साथ अनाचार की खबर एक समाचार चेनल पर एक उद्घोसिका द्वारा प्रसन्नचित मुद्रा में कुछ इस तरह परोसी जा रही थी, बलात्कार शब्द का प्रयोग बार-बार इस तरह प्रयोग किया जा रहा था की जैसे वह इस अनाचार का उत्सव मना रही हो! बहुत खीज होती है। हमारे बुद्धिजीवी साथी ज्यादातर मौन हैं।

मुझे भी सीख देते रहते हैं- "नीलम चुप रहा करो, सब ऐसे ही चलेगा, क्यों अपना खून जलाते हो, वैसे भी ज्यादातर बीमार रहते हो, अपनी सेहत का ख्याल करो, तुम एकेले दुनिया नहीं बदल सकते। क्यों सब से दुश्मनी लेते हो।"

हमारा यथास्थितिवाद, हमारी बुजदिल तटस्थता, हमारा अपने निजी हितों से प्रेरित होकर जानबूझ कर चुप रहना, हमारी अवसरवादिता, हमारा सब के चहेते बने रहने की लिप्सा हमारे प्रतिबद्ध होने के स्वांग को खोल देता है। मुक्तिबोध ने यूँ ही नहीं कहा था - "तय करो तुम्हें किस ओर हे जाना" या "दोस्त तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है?"

आजकल लेखक भी संदेह का लाभ लेने वाली मुद्रा में लिख रहे हैं। यानि वे इस बात से बचने का प्रयास कर रहे हैं कि कोई उनकी विचारधारा की स्पष्ट रूप से पहचान कर सके। ताकि वक्त आने पर वे खुद को प्रगतिशील-जनवादी या गैर प्रगतिशील-जनवादी साबित कर सकें। ज्यादातर रचनाकार, रचनाकार नहीं "परफोरमर" बन रहे हैं! "बेस्ट परफोरमर", "बेस्ट सेलर"! ताकि केंद्र कि सत्ता के साथ वे आपना खेमा आसानी से बदल सके।
चाटुकारिता, तलुआचाटूप्रवर्ती, चापलूसी, कालेजों और विश्वविद्यालयों में पद पाने की लालसा में आकाओं पर महिमामंडित करने वाले विशेषांक निकलना जैसे काम लेखक कर रहे है।

लेखकों, माफ़ कीजिये, स्त्री लेखकों का एक समूह तो कर्मकांडों, पाखंडों, आडम्बरों को महिमामंडित करने में लगा है। तीज-त्योहारों को बाजार बनाने में इनका बहुत बड़ा हाथ है। फेसबुक पर आई टिप्पणियों और चित्रों से ये प्रमाणित हो जाता है। मेरी एक स्टुडेंट है फेसबुक पर, उसने बताया कि स्त्री-अस्मिता और स्वाभिमान तथा कर्मकांडों के कारण हो रहे स्त्री शोषण को लेकर उसने कुछ स्त्री-लेखकों से राय जाननी चाही तो ज्यादातर ने इस बात को नाकारा कि धार्मिक कर्मकांडों के माध्यम से स्त्री शोषण होता है । उनके गोलमाल और श्रूड जवाब ने उसे भौचक कर दिया। क्यों कि इनमे से ज्यादातर स्त्री- लेखकों का लेखन स्त्री विमर्श का हामी है। दो-तीन युवा स्त्री-लेखक तो ऐसी है जो फेसबुक और पत्र-पत्रिकाओं में छाई रहती है। स्त्री-मुक्ति कि पक्षधर हैं , और खूब दमदार लिखती भी हैं पर, धार्मिक कर्मकांडों के माध्यम से स्त्री शोषण होता है , इस बात को नकारती हैं और कर्मकांडों का समर्थन करती हैं। उनके समर्थन का स्वर इतना मुखर है कि पुरातनपंथी सोच वाले लोग भी शर्म से मर जाये। वे इन कर्मकांडों को आपनी मर्जी से करना स्वीकार करती हैं, पुरुष सत्ता का थोपा हुआ नहीं मानतीं।
विभूति नारायण राय और ज्ञानोदय वाले विवाद पर मैने भी कुछ स्त्री-लेखकों को खुल कर अपनी राय बताने को कहा तो ज्यादातर कन्नी काट गयी।
मै इन हालातों से बहुत चिंतित होता हूँ। हमारा प्रतिबद्ध लेखक समाज कहाँ जा रहा है?

मंगलवार, 22 मार्च 2011

भगत सिंह ने एक बार बाबा सोहनसिंह भकना से कहा था-
"हमारी पुरानी विरासत के दो पक्ष होते हैं, एक सांस्कृतिक और दूसरा मिथिहासिकमैं सांस्कृतिक गुणों, जैसे- देश-सेवा, बलिदान, विश्वासों पर अटल रहना- को पूरी सच्चाई से अपनाकर आगे बढ़ने की कोशिश में हूँ, लेकिन मिथिहासिक विचारों को, जोकि पुराने समय की समझ के अनुरूप हैं, वैसे-का-वैसा मानाने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हूँ, क्योंकि विज्ञानं ने ज्ञान में खूब वृद्धि की है और वैज्ञानिक विचार अपनाकर ही भविष्य की समस्याएं हल हो सकती हैं। "
भगत सिंह के प्रति सच्ची श्रधांजलि तब होगी जब हम, - अक्तूबर १९३० को लिखी उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण रचना - "मैं नास्तिक क्यों हूँ?" को अपने जीवन में उतारेंगेबाकि तो खानापूर्ति या बस हायतौबा मचाना ही होगाहमें याद रखना चाहिए कि भगत सिंह ने रूढ़ियों, पाखंडों और कर्मकांडों को तोडा थाउन्होंने सिख होकर भी अपने केश कटवा कर आडम्बर को तोडा थामुझे गर्व है खुद पर कि मैं नास्तिक हूँ

भगत सिंह ने (ईस्वर्वादियों) आस्तिक लोगों से पूछा था -
"जैसा कि आपका विश्वास है, एक सर्व शक्तिमान, सर्व व्यापक एवं सर्व ज्ञानी ईश्वर है जिसने कि पृथ्वी या विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और आफतों से भरी यह दुनिया- असंख्य दुखों के शाश्वत और अनंत गठबन्धनों से ग्रसित! एक भी प्राणी पूरी तरह सुखी नहीं!"
-"मैं नास्तिक क्यों हूँ?"


साथियों,
आज शहीदे-आजम भगत सिंह की रचना "मैं नास्तिक क्यों हूँ?"
फिर से पढ़ीसेंकडों बार पढ़ा है इसे
इसे पढ़ कर यह संतोष है कि मैं नास्तिक हूँमुझे खुद के नास्तिक होने पर गर्व है
जिस ईश्वर को सारी दुनिया में शोषण और अनाचार के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया,
उसके अस्तित्व के नकार से मुझे बल मिलाता है

बुधवार, 9 मार्च 2011